हाहाकार
इस भीड़ में कौन जला कौन बुझा,
अपनों को भी पता न चला।
इतना कुछ देख गैरों को भी अपनी चिंता सताने लगी,
चिता पर अपनी तस्वीर नज़र आने लगी।
नहीं देखा कभी किसी ने ऐसा कोई खूनी मंज़र,
हर पल हर किसी के सीने पर चुभ रहे कई तीखे खंजर
उम्मीद नाउम्मीदी में बदल चुकी सबकी,
पर नेताओं तो अभी भी याद आ रही अपनी चाय की चुस्की,
क्या उनकी नियत अभी भी बदलेगी,
या ये ज्वाला यूँही और दहलेगी।
उनका काम तो काम वोट से भी चल जाना है,
सिर्फ प्रतिशत में अव्वल आना है।
पर आप और हमारा गुजारा मुश्किल है,
एक भी साथी बिछड़ा तो।
साथ आ जाओ इस बार तो दूर रहते हुए भी,
और जब वक़्त बदलेगा तब दूर न होना साथ रहते हुए भी।
लाखों की मौत का ज़िम्मेदार किसको ठहराओगे,
दशकों तक इन नेताओं, अफसर बाबुओं और कोर्ट के चक्कर काट, खुद को हैरान परेशान खाली हाथ ही पाओगे
इस हानि को क़ुरबानी में बदलना है तो,
एक बार जरा जाग जाओ, इस बार तो जाग जाओ।
अब से ही प्रण लो की यह भूल नहीं दोहराओगे,
अपने भविष्य की चाभी ऐसे लोगों और नेताओं को नहीं पकड़ाओगे।
जिनके जीवन में न विज्ञान की राह है, न जन समाधान की चाह,
है तो सिर्फ मंदिर मस्जिद शमशान से अपने वोटों और नोटों की परवाह।
सिर्फ वो इंसान ही नहीं, वक़्त और किस्मत भी अभी बुरी है,
भूल सिर्फ उनकी ही नहीं, प्रकृति ने भी ये मुश्किल खड़ी की है ।
माना प्रकृति के सामने तो बड़े बड़े मजबूर है,
पर हमारी ये कमजोरी नेताओं के सामने क्यों जी हुज़ूर है।
ये कोरोना और वायरस तो चला जाएगा,
या दवा इसकी सबको मिल जाएगी शायद पैसे देकर तो।
पर जो मुफ्त में हमने समाज में वायरस फैलाया हुआ है दशकों से,
उससे कौन निजात दिलाएगा, ये चीन का नहीं, प्राचीन है।
खैर माहौल तो अब चुनावी न रहा, पर हमेशा के लिए दूर करो अपने मिथकों को,
और ज़रा पहचान लो अपने शुभचिंतकों को ।
क्यूंकि इस वक़्त भीड़ में कौन भला है कौन बुरा,
यह तो परायों को भी पता चलने लग चुका है ।
पर अफ़सोस और दुःख अभी इस बात का ही है -
इस भीड़ में कौन जला कौन बुझा,
अपनों को भी पता न चला।
यह कल की झूठी जय-जयकार,
ही बनी आज की हाहाकार।
आज की हाहाकार |